Ashokarist
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अशोकारिष्ट
गुण और उपयोग (Uses and Benefits) :-
- स्त्रियों को होनेवाले प्रमुख रोग यथा–रक्त-शवेत प्रदर, पीड़ितार्तव, पाण्डु, गर्भाशय व योनि भ्रंश, डिम्बकोष प्रदाह, हिस्टीरिया, वन्ध्यापन तथा ज्वर, रक्तपित्त, अर्श, मन्दाग्नि, सूजन, अरुचि इत्यादि रोगों को नष्ट करता है।
- अशोकारिष्ट में अशोक की छाल की ही प्रधानता है।
- अशोक की कई जातियां होती हैं। इनमें एक जाति के पत्ते रामफल के समान, फूल नारंगी के रंग के होते हैं, जो बसन्त ऋतु में खिलते हैं, इसको लैटिन में “जौनेसिया अशोक” कहते हैं, और यही असली अशोक है। अशोकारिष्ट के लिये इसी अशोक की छाल लेनी चांहिए। यद्यपि शास्त्र में “अशोकस्य तुलामेकां चदुर्द्रोणे जले पचेत्” इतना ही लिखा है, वहाँ स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि किस जाति के अशोक की छाल लें। परन्तु अनुभव से ज्ञात हुआ है कि उपरोक्त अशोक-छाल द्वारा निर्मित अंशोकारिष्ट जितना गुणकारक होता है, उतना अन्य जाति के अशोक की छाल द्वारा निर्मित अशोकारिष्ट गुणकारी नहीं होता है। उपरोक्त अशोक बंगाल में बहुत मिलता है।
- अशोक मधुर, शीतल, अस्थि को जोड़नेवाला, सुगन्धित, कृमि-नाशक, कसैला, देह की कान्ति बढ़ाने वाला, स्त्रियों के रोग दूर करने वाला, मलशोधक, पित्त, दाह, श्रम, उदररोग, शूल, विष, बवासीर, अपच और रक्त-रोगनाशक है।
- डॉक्टरों ने भी अशोक का रासायनिक विश्लेषण करके देखा है। इसके अन्दर का अलकोहोलिक एक्सट्रेक्ट गरम पानी के अन्दर घुलने वाला है। इसमें टेनिन की मात्रा काफी पायी गयी है और एक इस प्रकार का प्राणिवर्ग से सम्बन्ध रखने वाला पदार्थ पाया गया, जिसमें लोहे की मात्रा काफी थी। इसमें-अलकेलाइड और एसेन्शियल आयल की मात्रा बिल्कुल नहीं पायी गयी। अशोक के विषय में प्रायः प्रसिद्ध-प्रसिद्ध डॉक्टरों का मत है कि अशोक की छाल बहुत सख्त ग्राही है, क्योंकि उसमें टेनिन एसिड रहता है।
- वास्तव में अशोकारिष्ट स्त्रियों का परम मित्र है, इसका कार्य गर्भाशय को बलवान बनाना होता है।
- गर्भाशय की शिथिलता से उत्पन्न होने वाले अत्यार्तव-विकार में इसका उत्तम उपयोग होता है, गर्भाशय के भीतर के आवरण में विकृति, बीजवाहिनियों की विकृति, गर्भाशय के मुख पर योनि-मार्ग में या गर्भाशय के भीतर या बाहर व्रण हो जाना आदि कारणों से अत्यार्तव रोग उत्पन्न होता है। इसमें अशोकारिष्ट के उपयोग से अच्छा लाभ होता है।
- कितनी ही स्त्रियों को मासिक धर्म आने पर उदर पीड़ा की आदत पड़ जाती है, जिसे पीड़ितार्तव का कष्टार्तव कहते हैं-इस रोग में मुख्यतः बीजवाहिनी और बीजाशय की विकृति कारण होती है। कितनी ही रुग्णाओं को तीव्र रूप में पीड़ा होती है, कमर में भयंकर दर्द, सिर-दर्द, बमन आदि लक्षण होते हैं। इस विकार में अशोकारिष्ट उत्तम कार्य करता है।
- प्रदर रोग , मद्यपान, अजीर्ण, गर्भख्राव, गर्भपात, अति मैथुन, कमजोरी में परिश्रम, चिन्ता, अधिक
- उपवास, गुप्ताङ्ग का आघात, दिवाशयन आदि से स्त्रियों का पित्त दूषित होकर पतला और अम्लरसप्रधान हो जाता है वह खून को भी वैसा बना डालता है। फलतः शरीर में दर्द, कटिशूल, सिर-दर्द, कब्ज तथा बेचैनी आरम्भ हो जाती है। साथ -ही योनिद्वार से चिकना, लस्सेदार, सफेदी लिए चावल के धोवन के समान, पीला-नीला-काला, रूक्ष, लाल, झागदार मांस के धोवन के समान रक्त गिरने लगता है। रोग पुराना हो जाने पर उसमें दुर्गन्ध निकलने लगती है और रक्तस्राव मज्जामिश्रित भी हो जाता है। ऐसा हो जाता है कि ‘चलते-फिरते, उठते-बैठते हरदम खून जारी रहता है, कोई अच्छा कपड़ा पहनना कठिन हो जाता है। कभीकभी खून के बड़े-बड़े जमे हुए, कलेजे के समान टुकड़े गिरने लगते हैं। इस अवस्था में खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना सब मुश्किल हो जाता है। यह हालत लगातार महीनों तक चलती है। कभी-कभी किसी उपचार या अधिक रक्ताभाष॑ से कुछ दिन के लिए खून का वेंग बन्द भी हो जाता है। परन्तु फिर वही हालत हो जाती है। इस प्रकार तमाम शरीर का रक्त गिर जाता और शरीर बिल्कुल रक्तहीन हो जाता है। पाचन शक्ति बिल्कुल खराब हो जाती है अतः नया रक्त भी नहीं बन पाता है। अशोकारिष्ट उपरोक्त उपद्रवों को दूर कर, शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए अपूर्व गुणकारी दवा है। 5 इसी तरह श्वेत प्रदर में रक्त की जगह सफेद, गाढ़ा और लस्सेदार पानी गिरता है। इसकी उत्पत्ति के दो स्थान हैं-योनि की श्लैष्मिक कला तथा गर्भाशय की भीतरी दीवाल, यह रस इसी कला या त्वचा में बनता और निकलता रहता है। थोड़ा-बहुत रस तो यह त्वचा बनाती ही रहती है, जो योनि को तर रखने के लिए आवश्यक भी है। किन्तु अधिक सहवास के कारण इस स्थान में विकृति पैदा हो जाने से यह रस अधिकता से बनने लगता है, और फिर योनिमार्ग से सदा सफेद, लस्सेदार पदार्थ गिरता रहता है। पहले तो गन्धरहित, फिर दुर्गन्धयुक्त सराव होने लगता है और पीड़ा भी धीरे-धीरे बढ़ने लगती है। इस रोग में भी वे सभी उपद्रव होते हैं, जो रक्त-प्रदर में होते हैं। अशोकारिष्ट का सेवन इन उपद्रवों को दूर करने के लिए बहुत प्रसिद्ध दवा है।
- पीड़ितार्तव में मन्द ज्वर होता है। मासिक धर्म बड़े कष्ट से और कम आता है, कमर-पीठ, पार्श्व आदि सभी अंगों में बहुत दर्द होता है। पेशाब भी बड़े कष्ट से उतरता है।
- इस रोग में सब से अधिक पीड़ा बस्ति-स्थान (पेडू) में होती है, इससे मुक्त होने के लिए अशोकारिष्ट अवश्य सेवन करना चाहिए। गर्भाशय भ्रंश या योनि भ्रंश में मैथुन क्रिया का ज्ञान नहीं रहने के कारण या कामोन्मादवश मूर्खतापूर्ण ढंग से मैथुन करने पर गर्भाशय तथा योनि दोनों अपने स्थान से हट जाते हैं। गर्भाशय तो भीतर ही टेढ़ा होकर नाना प्रकार की पीड़ा का कारण बनता है और योनि बाहर निकल आती है। या बार-बार बाहर-भीतर आती-जाती रहती है। इसके साथ पेडू और कमर में दर्द होना, पेशाब करने में दर्द होना, श्वेत प्रदर का जोर होना तथा मासिक धर्म कम होना या बिल्कुल बन्द हो जाना आदि लक्षण होते हैं। ऐसी स्थिति में अशोकारिष्ट का तो सेवन करावें ही साथ में चन्दनादि चूर्ण में त्रिवंग भस्म मिला कर सुबह-शाम दूध के साथ देने से शीघ्र लाभ होता है। डिम्बकोष प्रदाह यह रोग ऋतुकाल में पुरुष के साथ संगम करने से होता है, व्यभिचारिणी और वेश्याओं को यह रोग अधिक होता है। इसमें पीठ और पेट में दर्द होना, वमन होना, रोग पुराना हो. जाने पर योनि से पीब निकलना आदि लक्षण होते हैं। स्त्रियों के लिये यह रोग बहुत त्रासदायक है। इसमें प्रातः-सायं चन्द्रप्रभावटी 1-1 गोली तथा भोजनोत्तर अशोकारिष्ट बराबर जल मिलाकर पिलाने से लाभ होता है।
- हिस्टीरिया में स्नायुसमूह की उग्रता से यह रोग पैदा होता है, रोग पैदा होने के पहले छाती में दर्द तथा | शरीर और मन में ग्लानि उत्पन्न होती है, ऐसे देखने में तो यह रोग मिरगी जैसा ही प्रतीत होता है, परन्तु इसमें रोगिणी के मुंह से झाग नहीं आते; बःभी-कभी इस रोग से पेट के नीचे एक गोला-सा उठ कर ऊपर की ओर आ जाता है। गर्भाशय-सम्बन्धी किसी भी रोग से यह रोग उत्पन्न हो सकता है। यह रोग बड़ा दुष्ट और नवयुवतियों को तंग करने वाला है। अशोकारिष्ट के सेवन से उपरोक्त उपद्रव दूर हो जाते हैं।
- पाण्डुरोग स्त्रियों के रक्तप्रदर आदि कारणों से रक्त का क्षय होकर उनका शरीर पीताभ रंग का हो जाता है। इसमें शारीरिक शक्ति का क्रमशः हास होने लगता है। आलस्य और निद्रा हरदम घेरे रहती है, थोड़ा भी परिश्रम करने से भ्रम (चक्कर) आने लगता है। भूख नहीं लगती। यदि कुछ खा भी लें, तो मन्दाग्नि के कारण हजम नहीं हो पाता, जिससे पेट भारी बना रहता है। कदाचित् तरुणावस्था में यह रोग हुआ, तो यौवन का विकास ही रुक जाता है और स्त्री अपनी जिन्दगी से निराश रहने लग जाती है। इस दुष्ट रोग का कारण बहुमैथुन या बाल-विवाह है। इस रोग में प्रातःसायं नवायस लौह और भोजनोपरान्त अशोकारिष्ट में समभाग लौहासव तथा बराबर जल मिलाकर देने से आशातीत लाभ होता है।
- ऊर्ध्वगत रक्तपित्त के लिए अशोकारिष्ट अत्युत्तम औषध है।
- रक्तार्श में भी विशेषतः वेदना या जलन न होने पर अशोकारिष्ट के सेवन से लाभ होता है।
मात्रा और अनुपान (Dose and Anupan) :- १ तोला से 2 तोला समभाग जल मिलाकर भोजन के बाद दें।
मुख्य सामग्री तथा बनाने विधि ( Main Ingredients and Method of Preparation): – अशोक की छाल 5 सेर को जौकुट कर अच्छे ताँबे या पीतल के कलईदार बर्तन में । मन 4 सेर 16 तोला जल में डाल कर मन्दाग्नि से क्वाथ बनावें। जब चतुर्थांश जल 12 सेर 4 तोला बाकी रहे, तब उतार कर कपड़े से छान लें। ठण्डा हो जाने पर उसमें 70 सेर गुड़ मिलावें पश्चात् भांड या उत्तम काठ की टंकी में डालकर उसमें धाय के फूल 64 तोला, स्याह जीरा, नागरमोथा, सोंठ, दारुहल्दी, नीलोफर, हरड़, बहेड़ा, आमला, आम की मींगी, सफेद जीरा, वासक मूल और सफेद चन्दन-प्रत्येक का चूर्ण 4-4 तोला मिलाकर, यथाविधि सन्धान करके । माह के बाद (तैयार होने पर) छान कर रख लें। भै. र.
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