Effect of Vaat ,Pitt and Kaph on digetion
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दोषों का अग्नि से सम्बन्ध
तैर्भवेद्विषमस्तीक्ष्णो मन्दश्चाग्निः समैः समः ।।८।। (अ.ह.सू.अ-1)
वात के कारण अग्नि विषम, पित्त के कारण तीक्ष्ण और कफ के कारण मन्द होती है। वात-पित्त-कफ के समान होने से अग्नि भी समान होती है ॥८॥
वक्तव्य — विषम अग्नि – वायु के अपने स्वभाव एवं क्रिया के चंचल, अस्थिर और विषम होने से अग्नि भी चंचल, अस्थिर और विषम रहती है; अर्थात् कभी तो अन्न भली प्रकार पचता है, और कभी नहीं पचता; कभी भूख खूब लगती है, और कभी नहीं लगती। यह विषम अग्नि वायु से होती है। इस विषम अग्नि से रोग भी वातजन्य ही होते हैं और इसकी चिकित्सा भी वातनाशक उपायों से होती है; यथा— ‘विषमें स्निग्धाम्ललवणैः क्रियाविशेषैः प्रतिकुर्वीत ।’
तीक्ष्णाग्नि– पित्त के कारण होती है; क्योंकि पित्त स्वयं अग्नि है।
जिनमें अग्नि कम होती है; उनमें अग्निवर्धक औषध देकर अग्नि-पित्त को बढ़ाते हैं; और जिनमें पित्त की अधिकता होती है; उनमें अग्नि को कम करने वाले साधनों से पित्त को कम किया जाता है; उदाहरणार्थ-जैसे चूल्हे में यदि आग तेज हो गई हो तो अग्नि को बाहर खींचकर या वहीं पर ठण्ढा पानी डालकर उसको कम किया जाता है : इसी प्रकार पित्त को कम करने के लिये विरेचन या शीत उपचार करते हैं । इसी से सुश्रुत में कहा है—’तीक्ष्णे मधुरस्निग्धशीतैर्विरेकैश्च (प्रतिकुर्वीत); एवमेवात्यग्नौ ।’ (सु. सू. अ. ३३।२६)
मन्दाग्नि—कफ के कारण होती है; क्योंकि कफ स्वयं मन्द तथा अग्नि के विपरीत है।
इसके कारण थोड़ा देर से पचता है।जिस प्रकार राख या भस्म से ढँपी अग्नि अन्न का जल्दी परिपाक नहीं करती, उसी प्रकार कफ से आवृत्त अग्नि भोजन को नहीं पचाती । जिस प्रकार राख को हटाने के लिये वायु की जरूरत होती है; उसी प्रकार अग्नि को प्रदीप्त करने के लिये वायुवर्धक कटु तिक्त-कषाय रसों का उपयोग अग्नि को बढ़ाने के लिये किया जाता है; इसी से कहा है – ‘मन्दे कटु-तिक्त-कषायैर्वमनैश्च प्रतिकुर्वीत ॥’
समाग्नि—वात पित्त और कफ के समान होने से अग्नि भी समान होती है; यथा— ‘तत्र समवातपित्तश्लेष्मणां प्रकृतिस्थानां समा भवन्त्यग्नयः’ ।। चरक । अर्थात् यदि चूल्हे में जलती हुई आग पर वायु का असर ठीक हो रहा हो और उसके ऊपर राख आदि नहीं पड़ी हो और आग तेज भी नहीं हो; तो भोजन ठीक समय पर भलीभाँति पक जायेगा और जलेगा भी नहीं । इसी प्रकार शरीर में यदि वात-पित्त-कफ समान हैं, तो अग्नि भी समान रहती है।
समाग्नि भोजन और औषध का परिपाक क्रमशः चार और दो याम में करती है; तीक्ष्ण अग्नि उससे भी जल्दी और मन्दाग्नि और भी देर में पाक करती है, विषम अग्नि कभी करती है और कभी पाक नहीं करती। इसी से सुश्रुत ने कहा है- ‘यो यथाकालमुपयुक्तमन्नं सम्यक् पचति स समः समैर्दोषैः ।।’ (सु. सू. अ. ३५।२१४ ।)
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