Vaat, Pitt and Kaph in Ayurveda

त्रिदोष- वात, पित्त और कफ
वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषाः समासतः ।। ६ ।। (अ.ह.सू. अ.1)
संक्षेप में तीन दोष हैं-वायु, पित्त और कफ ॥६॥
वक्तव्य — दोष का अर्थ दूषित करने वाली वस्तु है। ये वायु-पित्त-कफ शरीर को दूषित करते हैं इसीलिये चरक में कहा है-‘वायुः पित्तं कफश्चोक्तः शारीरो दोषसंग्रहः’ ये ही दोष-हेतु-या कारण शब्द से भी कहे जाते हैं। रोगों के कारण दो प्रकार हैं—अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग । इनमें अन्तरङ्ग कारण दोष और दूष्य के भेद से अर्थात् दूषित करने वाला और दूषित होने वाला- इस भेद से फिर दो प्रकार का है। इसमें दूषित करने वाला कारण-अर्थात् दोष संक्षिप्त रूप में वायु पित्त-कफ भेद से तीन प्रकार का है। विस्तार रूप में वायु-प्राणादि भेद से; पित्त-भ्राजक आदि भेद से; कफ-आश्लेषक आदि भेद से अनेक प्रकार का है । परन्तु यहाँ तो संक्षेप रूप में समन्वय किया है !
वायु—‘वा’ गतिगन्धनयोः- इस धातु से बनता है; शरीर में जो भी गति मिलती है, उसका नाम वायु है। पित्त शब्द- ‘तप सन्तापे’ धातु से बनाया जाता है; शरीर में जो भी उष्णिमा है, वह पित्त है। कफ शब्द का पर्याय श्लेष्मा है – जो ‘श्लिष’ – आलिङ्गने’ धातु से बनता है; अर्थात् जो एक परमाणु को दूसरे परमाणु से शरीर में चिपटाये रखता है। अथवा ‘क’ का अर्थ ‘जल’ है, उससे जो बढ़ता है; वह कफ है ।
विकृताऽविकृता देहं घ्नन्ति ते वर्त्तयन्ति च । ते व्यापिनोऽपि हृन्नाभ्योरधोमध्योर्ध्वसंश्रयाः ।।७।। (अ.ह.सू. अ.1)
ये वात-पित्त-कफ यदि विकृत हो जायें तो शरीर का नुकसान करते हैं, और यदि ये अविकृत रहें तो शरीर को टिकाये रखते हैं। ये तीनों यद्यपि सारे शरीर में व्याप्त हैं, तथापि मुख्यतः हृदय एवं नाभि के निचले भाग में वायु का, हृदय और नाभि के मध्य भाग में पित्त का और हृदय एवं नाभि के ऊपर के भाग में कफ का स्थान है ||७||
वयोऽहोरात्रिभुक्तानां तेऽन्तमध्यादिगाः क्रमात् ।
अवस्था, दिन, रात और भोजन इनके अन्त में वायु और मध्य में पित्त तथा आदि में कफ होता है।
|
वक्तव्य – वय का अर्थ परिणाम अर्थात् आयु है; आयु की वृद्धावस्था में वायु की अधिकता रहती है; युवावस्था में पित्त की और बाल्यावस्था में कफ की अधिकता रहती है; इसी प्रकार दिन के अन्त भाग में (गोधूलि काल में) वायु की, मध्याह्न में पित्त की और प्रात:काल में कफ की प्रधानता है। रात्रि के पश्चिम काल में वायु की, मध्य रात्रि में पित्त की और प्रारम्भ काल में कफ की प्रचुरता रहती है। भोजन के जीर्ण हो जाने पर वायु की; भोजन की पच्यमानावस्था में पित्त की और भोजन के खाने के पश्चात् तुरन्त कफ की अधिकता रहती है। इसी से मनुष्य को भोजन खाते ही आलस्य या निद्रा आती है; यहां कफ-तामसिक है । जहाँ पर कफ सात्त्विक-सत्त्वबहुल रहता है; जैसा प्रात:काल में होता है; वहां आदमी की प्रकृति भी सात्त्विक रहती है; यही कारण है कि जुवाखाने, चण्डूखाने और शराबघर प्रात: सब बन्द होते हैं; तथा रात्रि के प्रथम भाग में जब तामसिक कफ की प्रचुरता रहती है, तब ये खुलते हैं; क्योंकि इस तामसिक कफ के कारण मनुष्य इस समय व्यसन या बुरे कार्यों में प्रवृत्त होता है। इसी से इस काल में मनुष्य को निद्रा स्वभावतः आती है; जैसा कि कहा है- ‘रात्रिस्वभावप्रभवा च निद्रा’ चरक सू. अ. २१।५८।
इसी प्रकार मनुष्य को स्वप्नदोष रात्रि के पश्चिम भाग में होता है; क्योंकि यह वात की अधिकता का समय है, स्वप्न भी इसी समय अधिक आते हैं; चूँकि अब निद्रा कम होने लगती है; जगने का समय होता है; इसलिये अर्धविकसित अवस्था में मस्तिष्क के होने से स्वप्न आते हैं, स्वप्नदोष होते हैं । वायु की प्रचुरता से नींद नहीं आती अथवा कम आती है। यह सब स्वभावतः होता है ।
उस कफ में सात्त्विक और तामसिक दोनों के लक्षण आयुर्वेद में मिलते हैं-इसके लिये डल्हण का कहना है कि ‘गुणद्वितयमपि कफे ज्ञातव्यम्-सत्त्वतमोबहुला आप:-इति वचनात्’ इसी प्रकार पित्त को सत्त्व की प्रधानता वाला मानकर उसमें रज का सम्मिश्रण मानते हैं, और वायु को रज की प्रचुरता वाला कहते हैं, क्योंकि वह प्रवर्तक है। जिस समय कफ में मलिनता रहती है, समय वह तामसिक होता है; और जब कफ निर्मल रहता है; तब उसमें सत्त्व की प्रधानता होती है, जैसे दर्पण के ऊपर पड़ी धूल या मैल उसके रूप को बदल देती है, उस पर मलिनता का आवरण होने से मनुष्य रूप नहीं देख सकता; परन्तु आवरण हट जाने पर मैल हट जाने से वास्तविक निर्मल रूप स्पष्ट हो जाता है; इसी प्रकार भोजन करने से पेट भरा होने से कफ पर आवरण आने से उसमें तामसिक लक्षण उत्पन्न होते हैं; और पेट के खाली होने से उसका वास्तविक निर्मल सात्त्विक रूप चमकने लगता है ।