Varsha Ritucharya

वर्षाऋतुचर्या ( Regimen of Rainy Season )
वर्षाऋतुचर्या का सैद्धान्तिक आधार सैद्धान्तिक आधार (Ayurveda principles in rainy season)-
- आदानकाल में मनुष्यों का शरीर अत्यन्त दुर्बल रहता है |
- दुर्बल शरीर में एक तो जठराग्नि दुर्बल रहती ही है, वर्षाऋतु आ जाने पर दूषित वातादि दोषों से दुष्ट जठराग्नि और भी दुर्बल हो जाती है।
- इस ऋतु में भूमि से बाष्प ( भाप ) निकलने, आकाश से जल बरसने तथा जल का अम्ल विपाक होने के कारण जब अग्नि का बल अत्यन्त क्षीण हो जाता है तब वातादि दोष कुपित हो जाते हैं ।
- अतः वर्षाकाल में साधारण रूप से सभी विधियों (नियमों ) का पालन करना चाहिए ।। ३३-३४ ॥
वर्षाऋतु में वर्ज्य आहार-विहार (Avoid following in Rainy Season) :—
- वर्षाऋतु में उदमन्थ ( जल में घुला सत्तू )
- दिन में सोना
- अवश्याय ( ओस गिरते समय उसमें बैठना या घूमना )
- नदी का जल
- व्यायाम ( Exercise )
- धूप में बैठना और मैथुन ( Sexual indulgence ) छोड़ देना चाहिए ॥ ३५ ॥
वर्षाऋतु में सेवनीय आहार-विहार (Do Following in rainy season) :-
- वर्षाऋतु में खाने-पीने की सभी चीजें बनाते समय उनमें मधु अवश्य मिला लेना चाहिए ।
- वात और वर्षा से भरे उन विशेष शीतवाले दिनों में अम्ल तथा लवण रस वाले और स्नेह द्रव्यों (घृतादि) की प्रधानता भोजन में रहनी चाहिए।
- जाठराग्नि की रक्षा चाहने वाले पुरुषों को भोजन में पुराने जौ, गेहूं और चावल का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
- मांसाहारी व्यक्तियों को इन आहार द्रव्यों को जांगल पशु-पक्षियों के संस्कृत मांसरस के साथ तथा शाकाहारी व्यक्तियों को संस्कृत मूँग के यूष के साथ लेना चाहिए।
- इस ऋतु में मधु मिला कर अल्प मात्रा में माध्वीक (महुए के मद्य ), अरिष्ट एवं जल का सेवन करना चाहिए।
- वर्षाऋतु में माहेन्द्र ( आकाश का ) जल, गरम करके शीतल किया हुआ जल, कूप का या सरोवर का जल पीना चाहिए। प्रघर्षण ( देह का घर्षण ), उद्वर्तन ( उबटन ), स्नान, गन्ध ( चन्दन आदि सुगंधित द्रव्यों) का प्रयोग और सुगन्धित पुष्प-मालाओं का धारण करना हितकर है।
- हलके और पवित्र वस्त्र धारण करना और क्लेदरहित सूखे ( without damp ) स्थान पर रहना चाहिए ॥ ३६-४०॥
आदान दुर्बले देहे पक्ता भवति दुर्बलः । स वर्षास्वनिलादीनां दूषणैर्बाध्यते पुनः ॥ ३३ ॥ भूबाष्पान्मेघनिस्यन्दात् पाकादम्लाज्जलस्य च । वर्षास्वग्निबले क्षीणे कुप्यन्ति पवनादयः॥ 34 ll
तस्मात् साधारणः सर्वो विधिर्वर्षासु शस्यते । उदमन्थं दिवास्वप्नमवश्यायं नदीजलम् ॥ ३५ ॥ पानभोजनसंस्कारान् प्रायः क्षौद्रान्वितान् भजेत् ॥ ३६ ॥
व्यक्ताम्ललवणस्नेहं वातवर्षाकुलेऽहनि । विशेषशीते भोक्तव्यं वर्षास्वनिलशान्तये ॥ ३७ ॥ अग्निसंरक्षणवता यवगोधूमशालयः । पुराणा जाङ्गलैर्मासैर्भोज्या यूषैश्च संस्कृतैः ॥ ३८ ॥ पिवेत् क्षौद्रान्वितं चाल्पं माध्वीकारिष्टमम्बु वा । माहेन्द्रं तप्तशीतं वा कौपं सारसमेव वा ॥ 39 ll
व्यायाममातपं चैव व्यवायं चात्र वर्जयेत् । प्रघर्षोद्वर्तनस्नानगन्धमाल्यपरो भवेत् । लघुशुद्धाम्बरः स्थानं भजेदक्लेदि वार्षिकम् ॥ ४० ॥