Chyavanprash

च्यवनप्राशावलेह
गुण और उपयोग (Uses and Benefits) :-
- अग्नि और बल का विचार कर क्षीण पुरुष को इस रसायन का सेवन करना चाहिए।
- बालक, वृद्ध, क्षत-क्षीण, स्त्री-संभोग से क्षीण, शोषरोगी, हदय के रोगी और क्षीण स्वरवाले को इसके सेवन से काफी लाभ होता है।
- इसके सेवन से खाँसी, श्वास, प्यास, वातरक्त, छाती का जकड़ना, वातरोग, पित्तरोग, शुक्रदोष और मूत्रदोष नष्ट हो जाते हैं।
- यह वृद्धि और स्मरण-शक्तिवर्द्धवक तथा मैथुन में आनन्द देने वाला है।
- इससे कान्ति, वर्ण और प्रसन्नता प्राप्त होती है तथा मनुष्य बुढ़ापा से रहित हो जाता हैं। –शा. सं.
- च्यवन ऋषि इसे खाकर बूढ़े से जवान हो गए थे, अतः इसका नाम च्यवनप्राश हुआ।
- यह फेफड़े को मजबूत करता है, दिल को ताकत देता है, पुरानी खाँसी और दमा में बुत त फायदा करता तथा दस्त साफ लाता है।
- अम्लपित्त में यह बड़ा फायदेमन्द है, वीर्य-विकार स्वप्नदोष नष्ट करता है, राजयक्ष्मा में लाभकारी है एवं बल, वीर्य, कान्ति, शक्ति और बुद्धि को बढ़ाता है।
- बच्चों के अंग-परतयंगों को बढ़ाता है।
- दुबले और कमजोर बच्चों को हृष्ट-पुष्ट एवं मोटा-ताजा बना देता है, उनका वजन भी बढ़ा देता है।
- उत्तम च्यवनप्राश देखने में गहरे लाल रंग का सुगन्धित, मीठा और आँवले के खड्डे मीठे स्वाद पूर्ण होता है तथा दाँतों में वंशलोचन की किरकिराहट या जलांध की गन्ध मुँह में नहीं आती है।
- च्यवनप्राश केवल बीमारों की ही दवा नहीं है, बल्कि स्वस्थ मनुष्यों के लिए उत्तम खाद्य भी है।
- जवानों की अपेक्षा वृद्ध इसका उपयोग अधिक करते हैं। ऐसा करने से उनका पेट साफ रहता है तथा भूख लगती है।
- रस-रक्तादि धातुएं पुष्ट होने से शरीर में शक्ति का संचय होता है।
- स्मरणशक्ति तथा शरीर में स्फूर्ति की वृद्धि होती है।
- किसी-किसी की धारणा है कि च्यवनप्राश शीत ऋतु में ही सेवन करना चाहिए। परन्तु यह सर्वथा भ्रान्त है। इसका सेवन सब ऋतुओं में किया जा सकता है।
- ग्रीष्म ऋतु में भी गरम नहीं करता, क्योंकि इसका प्रधान द्रव्य आँवला है, जो शीतवीर्य होने से पित्तशामक है।सिर्फ आँवले का ताजा फल प्यास को शान्तु करनेवाला, पेशाब खुलकर लानेवाला तथा अनुलोमक है।
- बाहरी और भीतरी प्रयोग में शीतल होने से आँवला पित्त को शान्त करता है।
- गरमी या पित्त प्रकोप से यदि हृदय में धड़कन और शूल हो तो च्यवनप्राश का सेवन करावें।
- पैत्तिक विकारों में इसे धारोष्ण या गरम करके ठण्डा किए हुए दूध के साथ दें।
- रक्त प्रदर, खूनी बवासीर, नक्सीर फूटना, पेशाब के रास्ते खून और पीब आना आदि पित्त-प्रकोप जन्य रोगों को शान्त करने के लिए इसका सेवन किया जाता है।
- ग्रीष्म ऋतु में गरमी से बचने के लिए च्यवनप्राश का सेवन करना अच्छा है।
- पुराने रोगियों या रोग छूटने के बाद रोगियों की निर्बलता दूर करने के लिए इसका प्रयोग बहुत लाभप्रद है।
- आँवले में जितनी अधिक मात्रा में खाद्योज (विटामिन) “सी” रहता है उतना सम्भवतः किसी दूसरे फल में नहीं होता।
- ताजे आंवले के रस में नारंगी के रस की अपेक्षा बीस गुना अधिक विटामिन “सी” रहता है।
- एक आँवले में डेढ़-दो सन्तरों के बराबर विटामिन “सी” रहता है।
- फल और सब्जियों को गरम करने, पकाने या सुखाने से उनके खाद्योज नष्ट हो जाते हैं। परन्तु आँवला इस विषय का अपवाद है। पकाने या सुखाने पर भी इसका खाद्योज नष्ट नहीं होता है। यही कारण है कि जो ताजे आँवले का च्यवनप्राश नहीं बना सकते, वे सूखे आँवले को भिंगो कर च्यवनप्राश बना, अपने मरीजों को देते हैं। यद्यपि ताजे आँवले की अपेक्षा यह गुण और स्वाद में कुछ न्यून अवश्य होता है, परन्तु तात्कालिक अभाव-पूर्ति के लिए उत्तम है। अतः जहाँ तक सम्भव हो ताजे आँवले से बने च्यवनप्राश का उपयोग करना चाहिए।
- विटामिन “सी” ज्यादा होने से ही इसका प्रभाव पाचन-संस्थान पर स्थायी रूप से पड़ता है, महाख्रोत की प्राचीरों में बल आता है, पाचक-रसों की उत्पत्ति पर्याप्त मात्रा में होती है। आन्तो द्वारा पाचन, शोषण और मलों का निर्हरण नियमित रूप से होता रहता है।
- फेफड़े (फुफ्फुस) पर भी इसका प्रभाव बहुत पड़ता है। अतएव खाँसी, श्वास, राजयक्ष्मा, उरःक्षत आदि में इससे काफी लाभ होता है।
- हृदय और रक्तवह संस्थान पर भी इसका असर होता है। अतएव हृदय की धड़कन, हदय निर्बल हो जाना, रक्त-संचार में बाधा पड़ना, रक्त-संवहन क्रिया ठीक-ठीक न होना आदि विकारों में इससे लाभ होता है। यह रसायन है, अतएव शुक्रजनित विकारों में तथा दुर्बल और वृद्ध मनुष्य के लिए अमृत-तुल्य कार्य करता है।
- क्षय की प्रथमावस्था में यदि केवल धातुक्षीणता ही उसका प्रधान स्वरूप हो एवं क्षय के अन्यान्य लक्षण उत्पन्न नहीं हुए हों, साधारण कृशता, कमजोरी एवं कभी-कभी ज्वर का होना, थोड़े ही परिश्रम से ज्वर का बढ़ जाना या शैथिल्य-विशेष की प्रतीति होना आदि दशा में जो औषध धातु को पुष्ट करे, वही लाभदायक होती है। परन्तु इस औषध में विशेष उत्तेजक गुण नहीं होना चाहिए। हाँ, धातुओं को निर्मल करने का गुण अवश्य होना चाहिए, क्योंकि क्षीण हुए निःसत्त्व धातु-घटकों के शरीर में वैसे ही बने रहने से भविष्य में राजयक्ष्मा की विशेष संभावना रहती है। अतः धातु-घटकों को निर्मल कर उनमें उत्पादन-शक्ति की वृद्धि करने वाली रासायनिक औषधें इस अवस्था में विशेष लाभ करती हैं।च्यवनप्राशावलेह उक्त-गुणविशिष्ट आयुर्वेदीय उत्तम औषध है।
- इसमें लगभग 40 द्रव्यों का संकलन है, जिनमें प्रमुख द्रव्य आँवला है, जो शारीरिक धातुओं को स्वच्छ कर उनकी विदग्धता को दूर करता है और परिणाम में अभिसरण एवं उत्पादन-क्रिया की वृद्धि कर धातुपुष्टि करता है। आँवला के इसी गुण के सहायक द्रव्य च्यवनप्राश में मिलाये जाते हैं। अतः इस एक ही औषध से क्षय की प्रारम्भिकावस्था में उत्तम लाभ होता है। यदि सिर्फ च्यवनप्राश ही देना हो तो 2 से 3 तोले की मात्रा में दें। इसमें सारकगुण होने से जिनका कोष्ठ मुलायम है, उन्हें इसके प्रयोग से 2-3 दस्त हो जाते हैं, किन्तु इससे कोई हानि नहीं होती। कुछ दिनों के बाद ज्यादा दस्त लगना अपने आप ही बन्द हो जाता है।
- जिनका कोठा सख्त हो या जिन्हे मलावरोध की शिकायत हो, उन्हें चाहिए कि दिन में च्यवनप्राश की मात्रा कम लें और रात्रि में अधिक लें, इससे प्रातः खुलकर दस्त आता है।उक्त अवस्था में यदि अजीर्ण, आध्मान आदि विकार हों तो उनके विनाशार्थ भोजनोत्तर 2 तोला द्राक्षासव बराबर जल मिलाकर सेवन करें।
- शारीरिक धातुओं एवं इन्द्रियों की शक्ति घट जाने से उसी प्रमाण में पचनेन्द्रियों की शक्ति का भी हास होता है, और ठीक समय पर आहार न पचना, खड्टी डकारें आना, कण्ठ में जलन, दाह होना, मुँह में कफ लिपा-सा मालूम होना, प्यास, जी मिचलाना. इत्यादि लक्षण उपस्थित होते हैं। इस अवस्था में प्रातः-सायं च्यवनप्राश तथा भोजनोत्तर द्राक्षासव के सेवन से बहुत लाभ होता है।
- इससे आभ्यन्तरिक धातु-पोषणकार्य को भी मदद मिलती है। क्षय की इसी प्रारम्भिक अवस्था में च्यवनप्राश के साथ मुक्ताभस्म, प्रवाल भस्म तथा मृगशृङ्ग आदि भस्मों का भी उपयोग किया जाता है। इन भस्मों का मुख्य गुण अन्न पचन करना तथा पचनेन्द्रियों और रस-रक्तादि धातुओं की अस्वाभाविक विकारी अम्लता तथा विषमता एवं क्षीणता को नष्ट करना है। मौक्तिक और प्रवाल में ये गुण विशेष पाये जाते हैं। परन्तु ध्यान रहे, पाचन-क्रिया को सुधारने के लिए मौक्तिक भस्म, शंख भस्म या कपर्दक भस्म का प्रयोग करना विशेष हितकर है और विदाहावस्था के प्रतीकारार्थ मौक्तिक या प्रवाल भस्म का प्रयोग लाभदायक है। धातुओं की विषमता एवं क्षीणता को नष्ट करने के लिये भी मौक्तिक, प्रवाल; अभ्रक भस्म विशेष उपयोगी है।
- मृङ्गशृङ्ग भस्म का सामान्य स्वरूप यद्यपि उपर्युक्त प्रवालादि भस्मों जैसा ही है, तथापि इसका कार्य कुछ भिन्न प्रकार का होता है। मौक्तिक, प्रवाल, शंख या शुक्ति में जितना पाचक और विदाहशामक गुण है, उतना इसमें नहीं है। परन्तु शरीरान्तर्गत अस्थिमय द्रव्यो का पोषण कार्य ‘मृगशृङ्गः भस्म के द्वारा उत्तम होता है। धातु-क्षीणावस्था में तरुणास्थि या हड्डियों की संधियों में जो मृदु अवयव या भाग होता है, वह जब निःसत्त्व हो जाता है, मृगशृङ्ग भस्म का प्रयोग विशेष लाभदायक है।
- प्रवाल, मौक्तिक या मृगभशषङ्ग भस्म इनमें से जिसका प्रयोग करना अभीष्ट हो, उसे च्यवनप्राश के साथ निम्न प्रकार से दें।
- प्रातः-सायं च्यवनप्राश 2 से 3 तोला तक (अनुपान दूध या जल) तथा दोपहर और रात्रि में भोजनोपरान्त द्राक्षासव 1 से 2 तोला तक चौगुने जल से मिला कर दें। मृगशृङ्ग भस्म देना हो तो प्रातः-सायं च्यवनप्राश में मिला कर दें और प्रवाल या मौक्तिक षिष्टी देना हो तो दराक्षरिष्ट में मिला कर सेवन करायें। धातु-क्षीणता की अवस्था में यदि शुक्रक्षय की अधिकता हो, तो च्यवनप्राश और द्राक्षारिष्ट के साथ स्वर्णराजवंगेश्वर की योजना विशेष लाभदायक है। सुवर्ण वंग के ऊपर पारद का संस्कार होने से केवल वंग भस्म की अपेक्षा यह ज्यादा लाभ करता है, अभाव में वंगभस्म भी लिया जा सकता है।
- ध्यान रहे, धातुक्षीणता की अवस्था में च्यवनप्राश विशेष गुणदायक है, परन्तु यदि क्षयरोग ने अपना पूर्ण स्वरूप धारण कर लिया हो अर्थात् ज्वर, कास आदि उपद्रव पूर्णरूप से उत्पन्न हो गए हों, तो च्यवनप्राश से उतना ठीक-ठीक लाभ नहीं होगा, क्योंकि क्षय की ऐसी अवस्था में उन औषधियों का प्रयोग विशेष हितकारी होता है, जिसमें पौष्टिक गुणों की अपेक्षा विषैली अवस्था का प्रतिबंधक या क्षय-कीटाणु-नाशक गुण अधिक प्रमाण में हो। च्यवनप्राश में यह गुण विशेष प्रमाण में नहीं होता, यह तो केवल धातु-क्षय की अवस्था में या क्षय की प्रथमावस्था में अपने पौष्टिक गुणों से उत्तम कार्य कर सकता है। बाद की अवस्था में वह उतना सफल नहीं होता। उपर्युक्त धातुक्षीणता की अवस्था में या क्षय की प्रथमावस्था में रकत-क्षीणता की विशेषता हो (शरीर श्वेत हो गया हो या हाथ-पाँव और मुख पर सूजन आ गई हो) तो अभ्रक, लौह या मण्डूर-भस्म का उपयोग च्यवनप्राश और द्राक्षारिष्ट के साथ करें। अभ्रक और लोहा का उपयोग रक्त-वृद्धि के लिए उत्तम होता है। इनमें भी लौह की अपेक्षा अभ्रक अधिक गुणदायक है। अतः प्रातः-सायं च्यवनप्राश के साथ अभ्रक 1 -2 रत्ती की मात्रा में या लौह अथवा मण्डूरभस्म -2 रत्ती की मात्रा में सेवन करें। इसमें अभ्रक जितना अधिक पुट वाला होगा उतना ही विशेष लाभदायक होगा। स्वर्ण बसन्त मालती और अभ्रक भस्म दोनों एक-एक रत्ती मिला कर च्यवनप्राश 4 तोला और मधु 3 माशा में मिला कर सुबह-शाम देने से भी क्षय रोग में विशेष गुण करता है। हमने क्षय की प्रथमावस्था के कई रोगियों को इसे सेवन कराकर ठीक किया है।
मात्रा और अनुपान (Dose and Anupan) :- १ से 2 तोला प्रातः समय गाय या बकरी के दूध के साथ सेवन करें।
मुख्य सामग्री तथा बनाने विधि ( Main Ingredients and Method of Preparation): – बेल की छाल, अरणी, अरलू, खंभारी, पाटला, मुद्गपणीं, माशपर्णी, पीपल, शालिपर्णी, पृश्निपर्णी, गोखरू, छोटी कटेली, बड़ी कटेली, काकड़ासिंगी, भुई आँवला, मुनक्का, जीवन्ती, पोहकरमूल, अगर, गिलोय, बड़ी हरे, बला, ऋद्धि-वृद्धि (दोनों के अभाव में वाराहीकन्द), जीवक, ऋषभक (दोनों के अभाव में विदारी कन्द), कचूर, नागरमोथा, पुनर्नवा, मेदा, महामेदा, (दोनों के अभाव में शतावरी), छोटी इलायची, कमल, सफेद चन्दन, विदारीकन्द, अडूसे की जड़, काकोली, क्षीर-काकोली (दोनों के अभाव में असगन्ध्र), काकनासा–प्रत्येक दवा का जौकुट चूर्ण 5-5 तोला लें।
पके हुए उत्तम आँवले गिन कर 500 तथा जल 76 सेर, सब को कलईदार बरतन में डाल कर पकावें। जब चौथाई पानी रह जाय, (अन्थ में अष्टमांश पानी रखने का पाठ है) तब चूल्हे पर से उतार लें और आँबले को एक तरफ रख कर पानी को छान कर सुरक्षित रख लें। | अब आंवले की गुठली निकाल कर एक मोटे कपड़े से रगड़ें ताकि आँवले का छिलका और तन्तु (रेशा) अलग हो जाय। फिर कपड़े से निकले हुए गूदे में गाय का घृत 35 तोला डालकर मन्द-मन्द आग से तब तक भूनते रहें, जब तक पानी का अंश जल न जाये। पानी का अंश जल जाने पर, घी बरतन में फिर-दीखने लगता है। अच्छी तरह पक जाने पर उतार कर नीचे रख दें। ऊपर जो काढ़ा (पानी) सुरक्षित रखने को लिखा है, उसंमें 3 सेर आधा पाव चीनी या मिश्री डाल कर चाशनी बना लें, तब उसमें भूने हुए आँवले मिला दें और वंशलोचन 20 तोला, पीपल १0 तोला, दालचीनी, तेजपात, नागकेशर और छोटी इलायची में प्रत्येक 3-3 शाण लेकर इनका कपड़छन चूर्ण कर मिला दें। अवलेह जब ठण्डा हो जाय, तब 30 तोला शहद मिलाकर सुरक्षित रख लें। —शा. ध. सं. विशेष
लौंग का चूर्ण 2 तोला प्रक्षेप में देने से विशेष गुणकारी बनता है। नोट :
च्यवनप्राशावलेह में आँवला जितना पुष्ट और पका हुआ रहेगा उतना ही अच्छा अवलेह
तैयार होगा, क्योंकि इसमें आँवला ही प्रधान द्रव्य है। साधारणतया आँवला संग्रह करने वाले पके हुए आँवले का बांस से झाड़ते हैं, जो जमीन पर गिर कर फूट-फूट कर रसहीन हो जाते हैं, और इनमें मिट्टी-कंकड़ आदि भर जाते हैं। ये आँवले जल्दी ही सड़ जाते हैं। यदि सुखा कर रखें तो इसमें बनी दवा का स्वाद खराब हो जाता है तथा उचित गुण भी नहीं करता है। अतएव च्यवनप्राश के लिए आँदले की उत्तम संग्रह-विधि यह है कि आंवले के पेड़ के नीचे: जाल लगाकर एक आदमी पेड़ पर चढ़ जाय और डाल तथा टहनियों को जोर से हिला दे। जौर से हिलाने से पके हुए आँवले जाल में गिर जायेंगे। ये आँवले च्यवनप्राश के लिए उत्तम होते हैं।
आँवले भी देशी जंगली और कलमी (बड़े) इस प्रकार दो तरह के होते हैं, गुणों में देशी अच्छे होते हैं। अतः च्यवनप्राश बनाने में देशी आँवला ही काम में लेनी चाहिए। देशी आँवला वजन में एक तोला से 1.5 तोला तक के होते हैं। किन्तु अधिकतर का १ तोला के ही होते हैं। संख्या से लेने पर हर बार वजन में कुछ-न-कुछ कमी-बेशी हो जाती है और इससे च्यवनप्राश का स्वाद भी हर बार बदल जाता है। सेवन करने वाले प्रायः इसकी शिकायत करते हैं। अतः एक आँवले का वजन । तोला मान कर 500 आँवला की बजाय वज़न से 7 सेर 3 छटाँक आंवला लेना ज्यादा अच्छा है। इस योग को कितनी ही बार बना कर हमने अनुभव किया है कि इसमें घी का परिमाण कम होने से आँवला पिट्टी की सिकाई ठीक नहीं हो पाती है और इसीलिए चरक में घी और तेल दोनों मिलाकर 2 पल (छटाँक) देने का उल्लेख है। किन्तु आचार्य शाङ्गधर तेल देने के पक्ष में नहीं हैं। अतः घृत को ही दुगने परिमाण में अर्थात् 4 पल (छटाँक) देने से ठीक रहेगा। इसी प्रकार चीनी का परिमाण भी कम होने के कारण स्वाद में अम्लता एवं तीक्ष्णता अधिक रहती है, जिसके कारण लोग व्यवहार करने में हिचकिचाते हैं। यदि इसमें चीनी का परिमाण भी दुगुना या अढ़ाई गुना करके बनाया जाये तो उत्तम तथा स्वादिष्ट बन जाता है। अम्लता और तीक्ष्णता भी काफी कम हो जाती है। प्रायः वैद्य दुगुनी या अढ़ाई गुनी चीनी डाल कर भी बनाते हैं, बल्कि कुछ लोग तो अढाई या तीन गुना चीनी डाल कर भी बनाते हैं। शहद अच्छा नहीं मिल पाता है। अतः बाजारू, रदी और खराब शहद डालने की अपेक्षा शहद के स्थान पर भी चीनी ही डालना उत्तम है।