Astang Hrdayam – Chapter 23
त्रयोविंशोऽध्यायः
अथातो आश्चोतनाञ्जनविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः । इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः ।।
अब इसके आगे आश्चोतन अंजन विधि नामक अध्याय का व्याख्यान करेंगे, जैसा कि आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था ।
नेत्ररोगों में आश्चोतन-
सर्वेषामक्षिरोगाणामादावाश्चोतनं हितम् ।
रुक्तोदकण्डूघर्षाश्रुदाहरागनिबर्हणम्।।१।।
आंख के सब रोगों में सबसे प्रथम ‘आश्चोतन’ करना हितकारी है। इससे पीड़ा, चुभना, कण्डु, रगड़, आंसू आना,
दाह और लालिमा नष्ट होती है ॥१॥
वक्तव्य – आश्चोतन-परिषेक । पलकों को बचाकर जो आलेप किया जाता है, उसका नाम विडालक है, यथा- ‘अव्यक्तेष्वेव रुजादिषु तुल्यगुणं पक्ष्मपरिहारेणाश्चोतनेनैवाक्षि-कोशालेपनम् । तच्च विडालसंज्ञम् ॥’ संग्रह सू. अ. ३२ । उष्णं वाते, कफे कोष्णं तच्छीतं रक्तपित्तयोः ।
यह आश्चोतन वायु में उष्ण, कफ में थोड़ा गरम, पित्त और रक्त में शीतल करना चाहिये ।
आश्चोतन की विधि
निवातस्थस्य वामेन पाणिनोन्मील्य लोचनम् ।। २ ।।
शुक्तौ प्रलम्बयाऽन्येन पिचुवर्त्त्या कनीनिके ।
दश द्वादश वा बिन्दून् द्व्यङ्गुलादवसेचयेत् ।। ३।।
ततः प्रमृज्य मृदुना चैलेन कफवातयोः ।
अन्येन कोष्णपानीयप्लुतेन स्वेदयेन्मृदु ।।४।।
विधि – रोगी को वायुरहित स्थान में बैठाकर वैद्य अपने बायें हाथ से रोगी की आंख को खोले। फिर दूसरे दक्षिण हाथ से सिप्पी में रखी हुई तथा लटकती हुई रूई की बत्ती से कनीनिका पर दस या बारह बिन्दुओं को दो अंगुलि की दूरी से परिषेक करे। फिर कोमल वस्त्र के टुकड़े से (या रुई से) पोंछ देवे। कफ और वायु में सुहाते हुए गरम पानी के दूसरे फोये से मृदु स्वेदन देवे ॥२-४॥
अत्युष्ण तीक्ष्ण आश्चोतन से रोगोत्पत्ति-
अत्युष्णतीक्ष्णं रुग्रागदृङ्नाशायाक्षिसेचनम् ।
अतिशीतं तु कुरुते निस्तोदस्तम्भवेदनाः ।। ५ ।।
कषायवर्त्मता घर्षं कृच्छ्रादुन्मेषणं बहु ।
विकारवृद्धिमत्यल्पं संरम्भमपरिस्रुतम् । । ६ । ।
आश्चोतन अति उष्ण या तीक्ष्ण हो तो वह आंख में पीड़ा, लालिमा और दृष्टिनाश करता है। अति शीतल आश्चोतन चुभने का सा दर्द, स्तम्भ और वेदना करता है। मात्रा में बहुत आश्चोतन से आँखों में रूक्षता, रगड़ तथा कठिनाई से खोलना होता है। मात्रा में थोड़ा आश्चोतन रोग में वृद्धि करता है तथा अपरिस्रुत अर्थात् अश्रु के साथ नेत्र के बाहर न आकर नेत्र में ही रुका हुआ आश्चोतन नेत्र में क्षोभ उत्पन्न करता है ।।५-६ ।।
नेत्र में प्रयुक्त औषध से लाभ-
गत्वा सन्धिशिरोघ्राणमुखस्रोतांसि भेषजम् ।
ऊर्ध्वगान्नयने न्यस्तमपवर्तयते मलान् ।। ७।।
आँखों में डाली हुई औषध–अक्षिकोशसम्बन्धी संधियों के स्रोत; शिरास्रोत, नासिकास्रोत एवं मुखस्रोतों में जाकर ऊपर की ओर प्रवृत्त मलों को लौटा कर बाहर निकालती है ॥७॥
अञ्जनप्रयोग-
अथाञ्जनं शुद्धतनोर्नेत्रमात्राश्रये मले ।
पक्वलिङ्गेऽल्पशोफातिकण्डूपैच्छिल्यलक्षिते ।।८।।
मन्दघर्षाश्रुरागेऽक्ष्णि प्रयोज्यं घनदूषिके ।
आर्ते पित्तकफासृग्भिर्मारुतेन विशेषतः ।। ९ ।।
अंजन—(वमनादि संशोधनों द्वारा) शुद्ध शरीर वाले पुरुष में आश्चोतन के बाद अञ्जन बरतना चाहिये । अञ्जन केवल नेत्र में ही मल होने पर; दोषों के पक्व लक्षणों में; थोड़ा शोफ, अति कण्डू तथा पिच्छिलता होने पर; थोड़ी रगड़ होने पर; पित्त, कफ और रक्त से पीड़ित रोगी में विशेष करके वायु में अंजन बरतना चाहिये ॥८-९ ॥
अञ्जन के भेद-
लेखनं रोपणं दृष्टिप्रसादनमिति त्रिधा ।
अञ्जनम्-
यह अञ्जन लेखन, रोपण और दृष्टिप्रसादन भेद से तीन प्रकार का है ।
लेखनादि अञ्जन के द्रव्य-
-लेखनं यत्र कषायाम्लपटूषणैः ।।१०।।
रोपणं तिक्तकैर्द्रव्यैः स्वादुशीतैः प्रसादनम् ।
तीक्ष्णाञ्जनाभिसन्तप्ते नयने तत्प्रसादनम् ।। ११ ।।
प्रयुज्यमानं लभते प्रत्यञ्जनसमाह्वयम् ।
इनमें-लेखन अञ्जन-कषाय, अम्ल, लवण और उष्ण द्रव्यों से तथा रोपण अञ्जन-तिक्त द्रव्यों से करना चाहिये । प्रसादन अञ्जन-स्वादु (मधुर) एवं शीतल द्रव्यों से-तीक्ष्ण अञ्जन से अभिसन्तप्त आँख में करना चाहिये। इस अवस्था में (तीक्ष्ण अञ्जन के बाद) प्रयोग करने पर इसकी प्रत्यञ्जन संज्ञा हो जाती है ॥१०-११॥
अञ्जन की शलाका-
दशाङ्गुला तनुर्मध्ये शलाका मुकुलानना ।। १२ ।।
प्रशस्ता लेखने ताम्री रोपणे काललोहजा ।
अङ्गुली च सुवर्णोत्था रूप्यजा च प्रसादने । । १३ ।।
अञ्जन शलाका-दस अङ्गुल लम्बी; बीच में पतली; सिरों पर गोल (डोडी के आकार की) शलाका उत्तम है। लेखन कार्य में ताम्र की बनी; रोपण में काललोह (तीक्ष्ण लोह) की बनी हो या केवल अङ्गुलि से अञ्जन करे। रोपण में स्वर्ण या चाँदी की बनी शलाका उत्तम है ।।१२-१३॥
अञ्जन की त्रिविध कल्पना-
पिण्डो रसक्रिया चूर्णस्त्रिधैवाञ्जनकल्पना ।
गुरौ मध्ये लघौ दोषे तां क्रमेण प्रयोजयेत् ।। १४ ।।
अञ्जन की कल्पना-पिण्ड, रसक्रिया और चूर्ण भेद से तीन प्रकार की है। इनमें गुरु दोष में पिण्ड; मध्यम दोष में रसक्रिया और लघु दोष में चूर्ण बरतना चाहिये ॥१४॥
तीक्ष्णादि चूर्ण का प्रमाण-
हरेणुमात्रा पिण्डस्य वेल्लमात्रा रसक्रिया । तीक्ष्णस्य, द्विगुणं तस्य मृदुनः-
तीक्ष्ण पिण्ड द्रव्य की मात्रा हरेणु (मेवड़ी के बीज) के समान तथा तीक्ष्ण रसक्रिया की मात्रा वेल्लज (विडंग) के बराबर होती है। मृदु द्रव्यों से बने पिण्ड अथवा रसक्रिया की मात्रा दुगुनी होती है।
– चूर्णितस्य च ।। १५ । ।
द्वे शलाके तु तीक्ष्णस्य, तिस्नस्तदितरस्य च ।
चूर्ण में―तीक्ष्ण चूर्ण की मात्रा दो शलाका है, और मृदु चूर्ण की मात्रा तीन शलाका है ।। १५ ।।
रात्रि आदि में अञ्जन करने का निषेध-
निशि स्वप्ने न मध्याह्नेम्लाने नोष्णगभस्तिभिः ।। १६ ।।
अक्षिरोगाय दोषाः स्युर्वर्धितोत्पीडितद्रुताः । प्रातः सायं च तच्छान्त्यै व्यभ्रेऽर्केऽतोऽञ्जयेत्सदा ।। १७ । ।
रात्रि में, सोने के समय, मध्याह्न में तथा धूप से मुरझायी आँखों में अञ्जन नहीं लगाना चाहिये क्योंकि इन अवस्थाओं में अञ्जन करने से दोष बढ़कर (अन्यस्थानगत होने से) उत्पीड़ित होकर तथा द्रव होकर आँख के रोग उत्पन्न करते हैं। इनकी शान्ति के लिये या इनसे बचने के लिये प्रातःकाल, और सायंकाल में आकाश में बादलों से रहित सूर्य होने पर सदा अञ्जन करना चाहिये ।।१६-१७॥
अन्याचार्यों के मत-
वदन्त्यन्ये तु न दिवा प्रयोज्यं तीक्ष्णमञ्जनम् । विरेकदुर्बलं चक्षुरादित्यं प्राप्य सीदति ।। १८ ।। दूसरे (चरक आदि) – दिन में तीक्ष्ण अञ्जन करने का निषेध करते हैं क्योंकि तीक्ष्ण अञ्जन से आख का विरेचन होने के कारण दुर्बल हुई दृष्टि सूर्य के प्रकाश से शिथिल बन जाती है ॥१८॥
स्वप्नेन रात्रौ कालस्य सौम्यत्वेन च तर्पिता । शीतसात्म्या दृगाग्नेयी स्थिरतां लभते पुनः ।। १९।।
रात्रि में सोने से और समय के सौम्य होने के कारण तर्पित हुई-आग्नेयी होते हुए भी शीतसाम्य वाली दृष्टि रात्रि में प्रयुक्त से पुनः स्थिरता प्राप्त करती है ॥१९॥
वक्तव्य—चरक में ‘दिवा तन्न प्रयोक्तव्यं नेत्रयोस्तीक्ष्णमञ्जनम् । विरेकदुर्बला दृष्टिरादित्यं प्राप्य सीदति । तस्मात् स्राव्यं निशायां तु ध्रुवमञ्जनमिष्यते ।।’ चरक. सू. अ. ५।१७।।
अन्य मत का अपवाद-
अत्युद्रिक्ते बलासे तु लेखनीयेऽथवा गदे । काममह्वयपि नात्युष्णे तीक्ष्णमक्ष्णि प्रयोजयेत् ।। २०।।
कफ के अत्यधिक बढ़े होने पर; अथवा शुक्र अर्म आदि लेखनीय रोगों में, अधिक उष्ण काल न होने पर आँखों में तीक्ष्ण अञ्जन का इच्छानुसार दिन में भी प्रयोग कर सकते हैं ||२०||
उक्त विषय में दृष्टान्त-
अश्मनो जन्म लोहस्य तत एव च तीक्ष्णता । उपघातोऽपि तेनैव तथा नेत्रस्य तेजसः ।। २१ । ।
शस्त्र की उत्पत्ति पत्थर से ही होती है, शस्त्र की तीक्ष्णता भी उसी पत्थर से है, और शस्त्र का कुण्ठित होना भी पत्थर से ही होता है; इसी प्रकार दृष्टि भी-तेज से उत्पन्न होती है; तैजस तीक्ष्ण अञ्जन से ही तीव्र बनती है और तेज से ही दूषित
होती है ॥२१॥
रात को भी अतिशीत में तीक्ष्णाञ्जननिषेध-
न रात्रावपि शीतेऽपि नेत्रे तीक्ष्णाञ्जनं हितम् । दोषमस्रावयेत्स्तब्धं कण्डूजाड्यादिकारि तत् ।। २२ ।।
रात्रि में भी अतिशीत होने पर तीक्ष्ण अञ्जन आँख में नहीं लगाना चाहिये क्योंकि शीत काल होने से अञ्जन दोष का स्राव न करा के स्तब्धता, कण्डू, जड़ता आदि उत्पन्न करता है ॥२२॥
अञ्जन के अयोग्य व्यक्ति-
नाञ्जयेद्भीतवमितविरिक्ताशितवेगिते क्रुद्धज्वरिततान्ताक्षिशिरोरुक्शोकजागरे । । २३।।
अदृष्टेऽर्के शिरःस्नाते पीतयोर्धूममद्ययोः । अजीर्णेऽग्न्यर्कसन्तप्ते दिवासुप्ते पिपासिते ।। २४ ।।
अञ्जननिषेध-डरे हुए, वमन किये; विरेचन लिये; भोजन करने पर, मलमूत्र के उपस्थित वेग पर; क्रूद्ध एवं ज्वरयुक्त
होने पर, नितान्त-सूक्ष्म-चमकते आदि रूपों के दर्शन से थकी या चकित दृष्टि में, शिरोरुक्, शोक तथा रात्रिजागरण में, सूर्य के छिपे होने पर; शिर समेत स्नान करने पर, मद्य या धूम के पीने पर; अजीर्ण में, अग्नि या सूर्य से सन्तप्त होने पर; दिन में सोने पर, प्यास लगी होने पर अञ्जन नहीं करना चाहिये ।।२३-२४।।
प्रयोग के अयोग्य अञ्जन-
अतितीक्ष्णमृदुस्तोकवह्वच्छघनकर्कशम् । अत्यर्थशीतलं तप्तमञ्जनं नावचारयेत् ।। २५।।
अतितीक्ष्ण, अतिमृदु, अत्यल्प, अतिमात्रा में; अतिपतला, अतिघट्ट, कर्कश, अतिशीतल, अत्युष्ण अञ्जन आँखों में नहीं करना चाहिये ॥२५॥
वक्तव्य—अञ्जनविधि— ‘सुर्खोपविष्टस्यातुरस्य सुखोपविष्टो वद्यो वामाङ्गुष्ठेनोत्तरं वत्मत्क्षिप्य कृष्णभागस्याध:कनीनिकादपा यावदञ्जनं नयेत् ॥’
अञ्जन के पश्चात् कर्तव्य-
अथानुन्मीलयन् दृष्टिमन्तः सञ्चारयेच्छनैः । अञ्जिते वर्त्मनी किञ्चिच्चालयेच्चैवमञ्जनम् ।। २६ ।।
तीक्ष्णं व्याप्नोति सहसा न चोन्मेषनिमेषणम् । निष्पीडनं च वर्त्मभ्यां क्षालनं वा समाचरेत् ।। २७ ।।
अञ्जन लगाने के उपरान्त आँखों को बन्द रख कर ही धीमे से आँख के अन्दर चलाये । पलकों को भी थोड़ा चलाये इस प्रकार करने से तीक्ष्ण अञ्जन सहसा फैल जाता है। आँखों को खोलना, बन्द करना; पलकों को दबाना; अथवा आँखा को धोना नहीं चाहिये ॥२६-२७॥
नेत्र धोने की विधि-
अपेतौषधसंरम्भं निर्वृतं नयनं यदा । व्याधिदोषर्तुयोग्याभिरद्भिः प्रक्षालयेत्तदा ।। २८ ।।
जब आँख में औषध की बेचैनी कम हो जाये, तब रोग, दोष तथा ऋतु के अनुसार जल से इसको धोये ||२८||
नेत्रशोधन की विधि-
दक्षिणाङ्गुष्ठकेनाक्षि ततो वामं सवाससा । ऊर्ध्ववर्त्मनि सगृह्य शोध्यं वामेन चेतरत् ।। २९ ।।
दक्षिण हाथ के अंगूठे को वस्त्र में लपेट कर-वाम आँख को ऊपर के पलक से पकड़ कर साफ करना चाहिये। दक्षिण आँख को ऊपर के पलक से पकड़ कर वाम हाथ के अंगूठे पर वस्त्र लपेट कर उससे साफ करना चाहिये ॥२९॥
नेत्रशोधन नहीं करने से हानि-
वर्त्मप्राप्तोऽञ्जनाद्दोषो रोगान् कुर्यादतोऽन्यथा ।
आँखों का शोधन न करने से पलकों में लगा हुआ यह अञ्जन-रोगों को उत्पन्न करता है ।
कण्डू आदि रोगों में तीक्ष्णाञ्जन प्रयोग-
कण्डूजाड्येऽञ्जनं तीक्ष्णं धूमं वा योजयेत् पुनः ।। ३० ।।
आँख में कण्डू या जड़ता होने पर तीक्ष्ण अञ्जन फिर बरतना चाहिये या धूमपान करना चाहिए ॥ ३० ॥
तीक्ष्णाञ्जनाभितप्ते तु चूर्णं प्रत्यञ्जनं हिमम् ।।
इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां सूत्रस्थान आश्चोतनाञ्जनविधिर्नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ।। २३ ।।
तीक्ष्ण अञ्जन से अभितप्त आँख में शीतल चूर्ण से प्रत्यञ्जन करे ।
इस प्रकार विद्योतिनी टीका में सूत्रस्थान का आश्चोतनाञ्जन विधि नामक तेईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ।।२३।।